जंगल हमारी संपदा।


हरेभरे,छायादार, पंछियों के आश्रयस्थान, विविध फलों के दाता.. दीर्घाकार पेड़ों को।

हरी..दूर तक फैली, नयनरम्य,शांतिप्रदा हरयाली को।

रंग- बिरंगी फूलों से लदे,सुंदरता को साकार करतें,वातावरण को सुगंधित करतें, अनगिनत, हवामें हिंचकोले लेते पौधों को।

कुदरत ने हमें बक्षे हुए, ऐसे ही असंख्य अमूल्य उपहारों को।

अगर हम नहीं बचाकर रखतें..

तो इन्हें सिंचने वाला जल भी, अनुपयुक्त समझकर अपनेआप को, मिटा देगा अस्तित्व अपना।

..फिर इस सीमेंट- कॉन्क्रेट के जंगल में सांस लेना जब दूभर होगा हमारा,

वापस उस हरेभरे जंगल की तरफ , आश्रय लेने दौड़ कर नहीं जा सकेंगे हम।

क्यों कि वह तो बंजर जमीन,

रेतीले टीलों में परिवर्तित हो चुका होगा। 

वहां से गुजरता हुआ हवा का बवंडर, हमे हमारी अक्षम्य भूलों का इतिहास, गा कर सुना रहा होगा।

साथ साथ ही धरती का वह रुक्ष छोर, मानों फीकी हंसी हंसता हुआ, 

हमें कभी उसके हराभरा,

जंगल होने की याद दिला रहा होगा।

क्या अब भी ऐसा नहीं लगता,

कि हमें समय के रहते संभल जाना होगा?

कुदरत के बक्षे जंगल नाम के उपहार को..

सदा-बहार बना कर रखना होगा?

वंदे मातरम की ऊंची गुंज को..

सदा के लिए गगन में...

गूंजता रखना होगा?

- Aruna Kapoor

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